उत्तराखंड के त्रि-स्तरीय चुनाव 2025: आरक्षण की पड़ताल और गढ़वाल-कुमाऊं की ग्रामीण-शहरी राजनीति
उत्तराखंड के त्रि-स्तरीय चुनाव 2025: आरक्षण की पड़ताल और गढ़वाल-कुमाऊं की ग्रामीण-शहरी राजनीति
उत्तराखंड में त्रि-स्तरीय पंचायत और नगर निकाय चुनाव हमेशा से ही राज्य के सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने का एक दिलचस्प दर्पण रहे हैं। ये चुनाव केवल स्थानीय प्रतिनिधियों को चुनने से कहीं बढ़कर हैं; वे क्षेत्रीय आकांक्षाओं, जातीय समीकरणों और आरक्षण नीतियों पर चल रही बहस को गहराई से दर्शाते हैं। जनवरी 2025 में संपन्न हुए शहरी स्थानीय निकाय (ULB) चुनावों के बाद, और आगामी महीनों में पंचायत चुनावों की प्रत्याशा के साथ, यह समझना महत्वपूर्ण है कि आरक्षण सूची कैसे राजनीतिक परिदृश्य को आकार दे रही है और गढ़वाल व कुमाऊं क्षेत्रों से उभरती हुई विशिष्ट राजनीतिक narratives क्या हैं।आरक्षण सूची का अनावरण: दोधारी तलवार
त्रि-स्तरीय चुनाव में अनुसूचित जातियों (SCs), अनुसूचित जनजातियों (STs), अन्य पिछड़ा वर्गों (OBCs) और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों का आवंटन संवैधानिक जनादेश है, जिसका उद्देश्य समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। हालांकि, इन आरक्षण सूचियों को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया अक्सर एक विवादास्पद मुद्दा बन जाती है, जिससे राजनीतिक जोड़-तोड़ और, कभी-कभी, कानूनी चुनौतियाँ भी पैदा होती हैं।
2025 के स्थानीय चुनावों से पहले, परिसीमन और आरक्षण प्रक्रिया गहन जांच के दायरे में रही है। जबकि इसका उद्देश्य हाशिए के समुदायों को सशक्त बनाना और स्थानीय शासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना है, आरक्षित सीटों का विशिष्ट सीमांकन निष्पक्षता और राजनीतिक लाभ के बारे में बहस छेड़ सकता है। उदाहरण के लिए, एक वार्ड का सामान्य से आरक्षित श्रेणी में बदलना, या इसके विपरीत, इच्छुक उम्मीदवारों और स्थापित राजनीतिक समीकरणों के भाग्य को नाटकीय रूप से बदल सकता है।
इसका प्रभाव:
- राजनीतिक गणना: पार्टियां जीत सकने वाली सीटों की पहचान करने और उम्मीदवार चयन की रणनीति बनाने के लिए आरक्षण सूचियों का बारीकी से विश्लेषण करती हैं। इससे आंतरिक असंतोष हो सकता है क्योंकि सामान्य श्रेणी के संभावित उम्मीदवारों को नई आरक्षित सीटों में उनकी आकांक्षाओं पर अंकुश लगता हुआ दिख सकता है।
- सामुदायिक दावे: समुदाय अक्सर आरक्षण मैट्रिक्स पर उत्सुकता से नज़र रखते हैं। आरक्षित सीटों के आवंटन में कोई भी कथित असंतुलन या अनुचितता विरोध और मताधिकार से वंचित होने की भावना को जन्म दे सकती है, जिससे मतदान पैटर्न प्रभावित होता है।
- कानूनी चुनौतियाँ: आरक्षण प्रक्रिया, विशेष रूप से ओबीसी के लिए, कानूनी लड़ाइयों का सामना कर रही है, जिससे कभी-कभी चुनावी प्रक्रिया में देरी भी होती है। ओबीसी के लिए आरक्षण को लागू करने के लिए राज्य सरकार का दृष्टिकोण, जैसा कि एक समर्पित आयोग के गठन से देखा गया है, इसमें शामिल जटिलताओं को उजागर करता है।
ग्रामीण बनाम शहरी राजनीति: उत्तराखंड की दो कहानियाँ
उत्तराखंड की राजनीतिक narrative को अक्सर इसके दो प्रमुख भौगोलिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों: गढ़वाल और कुमाऊं द्वारा विभाजित किया जाता है। यह क्षेत्रीय विभाजन स्थानीय राजनीति के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और त्रि-स्तरीय चुनाव इन विशिष्ट गतिकी को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
गढ़वाल: सत्ता का केंद्र, ग्रामीण हृदय
गढ़वाल क्षेत्र, राज्य की राजधानी देहरादून का घर, अक्सर राज्य स्तर पर अधिक राजनीतिक प्रभाव रखता है। ग्रामीण गढ़वाल में, त्रि-स्तरीय चुनाव का ध्यान मुख्य रूप से निम्नलिखित से प्रभावित होता है:
- पंचायती राज संस्थाएँ: ग्राम पंचायतें, क्षेत्र पंचायतें और जिला पंचायतें सामाजिक ताने-बाने में गहराई से समाई हुई हैं। यहां चुनाव अक्सर स्थानीय मुद्दों, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और पारंपरिक निष्ठाओं पर लड़े जाते हैं, न कि सख्त पार्टी लाइनों पर, हालांकि प्रमुख पार्टियां उम्मीदवारों को समर्थन देती हैं।
- पलायन और जनसांख्यिकी: गढ़वाल के ग्रामीण क्षेत्र महत्वपूर्ण पलायन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। यह मतदाता जनसांख्यिकी और उम्मीदवारों की उपलब्धता को प्रभावित करता है, जिससे कभी-कभी पुरुष समकक्षों की अनुपस्थिति में युवा या अधिक महिला नेतृत्व सामने आता है।
- संसाधन आवंटन: सड़क संपर्क, जल अवसंरचना, स्वास्थ्य सेवाओं और शैक्षिक सुविधाओं के बारे में बहस चुनावी विमर्श पर हावी रहती है। उम्मीदवार अक्सर सरकारी योजनाओं तक बेहतर पहुंच का वादा करते हैं।
देहरादून, हरिद्वार और ऋषिकेश जैसे शहरों में शहरी गढ़वाल की राजनीति अन्य भारतीय शहरों के समान है:
- बुनियादी ढाँचा विकास: यातायात भीड़, अपशिष्ट प्रबंधन, स्वच्छता और शहरी नियोजन जैसे मुद्दे केंद्र में आते हैं।
- पार्टी का प्रभुत्व: राष्ट्रीय और राज्य की राजनीतिक पार्टियों (भाजपा और कांग्रेस) का अधिक मजबूत और सीधा प्रभाव होता है, जो आधिकारिक उम्मीदवार उतारते हैं और व्यापक अभियान चलाते हैं।
- युवा आकांक्षाएं: शहरी युवा अक्सर रोजगार के अवसरों और आधुनिक सुविधाओं से चिंतित रहते हैं, जिससे उम्मीदवार के चुनाव प्रभावित होते हैं।
कुमाऊं: सांस्कृतिक केंद्र, उभरता हुआ शहरी केंद्र
कुमाऊं क्षेत्र, अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के साथ, स्थानीय चुनावों में एक अद्वितीय राजनीतिक परिदृश्य भी प्रस्तुत करता है।
- मजबूत सामुदायिक बंधन: ग्रामीण कुमाऊं, गढ़वाल के समान, सामुदायिक संबंधों और स्थानीय मुद्दों में निहित चुनाव देखता है। हालांकि, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक narratives अक्सर राजनीतिक निष्ठाओं को आकार देने में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- कृषि और आजीविका: कृषि, लघु उद्योग और स्थायी पर्यटन से संबंधित मुद्दे ग्रामीण कुमाऊं में महत्वपूर्ण हैं। उम्मीदवार अक्सर इन क्षेत्रों का समर्थन करने वाली विकास पहलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
- क्षेत्रीय पहचान: कुमाऊं की मजबूत पहचान कभी-कभी अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता या एक विशिष्ट राजनीतिक इकाई की मांगों में तब्दील हो सकती है, जो स्थानीय चुनावी विमर्श को प्रभावित करती है।
- नए शहरी केंद्र: हल्द्वानी, नैनीताल और रुद्रपुर जैसे कुमाऊं के शहरी क्षेत्रों में तेजी से शहरीकरण हो रहा है। यहां शहरीकरण से जुड़ी चुनौतियां और अवसर चुनावों में प्रमुख होते हैं:
- बेहतर नागरिक सुविधाएँ: पानी, बिजली, सीवरेज, और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन जैसी बुनियादी सुविधाओं की मांग बढ़ती है।
- पर्यटन का प्रभाव: कुमाऊं के कई शहरी केंद्र पर्यटन पर निर्भर करते हैं, और स्थानीय निकाय चुनाव में पर्यटन विकास, बुनियादी ढांचे और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित मुद्दे महत्वपूर्ण होते हैं।
- बढ़ता निवेश और रोजगार: शहरी युवा बेहतर रोजगार के अवसर और निवेश आकर्षित करने वाली नीतियों की तलाश में रहते हैं।
2025 के चुनाव: आगे क्या?
जैसा कि हम 2025 के पंचायत चुनावों की ओर बढ़ रहे हैं, आरक्षण सूची का अंतिम प्रकाशन और इस पर संभावित आपत्तियां एक महत्वपूर्ण मोड़ होंगी। राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा नैनीताल और टिहरी गढ़वाल जैसे जिलों में जारी अंतिम आरक्षण सूची दर्शाती है कि प्रक्रिया आगे बढ़ रही है, लेकिन इसका राजनीतिक असर अभी देखा जाना बाकी है।
कुल मिलाकर, उत्तराखंड के त्रि-स्तरीय चुनाव 2025 राज्य के ग्रामीण और शहरी विभाजन, कुमाऊं और गढ़वाल के क्षेत्रीय अंतर, और आरक्षण नीतियों के निरंतर विकास को उजागर करते हैं। ये चुनाव केवल स्थानीय प्रतिनिधित्व से कहीं अधिक हैं; वे उत्तराखंड के लोकतांत्रिक ताने-बाने की जटिलताओं और विविधताओं को दर्शाते हैं।
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